Monday 19 April 2010

अनुशासन

अपने ही कहे से पलट जाना कभी सरल नहीं होता. मैंने हिंदी में अन्य भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग को लेकर एक लम्बा चौड़ा लेख लिखा था. कहीं से भी हिंगलिश का समर्थन नहीं किया था परन्तु अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्दों को उपयोग में लाने का समर्थन किया था. कतिपय पाठकों ने लेख का मंतव्य न समझ कर लेख की टांग भी खींची थी. उनकी प्रतिक्रिया भी किसी सीमा तक सही ही थी, मैंने ही कुछ शब्दों जैसे कि स्कूल आदि को हिंदी का अंश बनाने का समर्थन किया था. अब समर्थन करके होना भी क्या है ये शब्द अब मात्र आगंतुक नहीं रहे.
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लगातार हिंदी पत्र पत्रिकाओं को पढ़कर समझ आ गया है कि क्यों कुछ पाठकों ने विपरीत प्रतिक्रियाएं दी थी. करे कोई ठीकरा किसी के सर.
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मैंने अपने लेखों में यथासंभव सरल साहित्यिक हिंदी का प्रयोग किया है. ऐसी जिस पर न तो यह आरोप लगे कि समझ नहीं आ रही, न ही ये आरोप लगे कि हिंदी के नाम पर उर्दू-हिंदी-आंग्लभाषा काढ़ा प्रस्तुत किया गया है.
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पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से समाचार पत्रों ने वर्णसंकर हिंदी का प्रयोग आरम्भ कर दिया है उससे लगता है कि सर्वनाश हो कर रहेगा. यह स्थिति मात्र हिंदी पत्रों की नहीं है. अन्य भाषाएँ भी इससे पीड़ित हैं.
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इस समस्या का हल क्या हो? बड़े महत्व का प्रश्न है. समस्या का हल यह है कि हिंदी अनिवार्य हो. राजकीय स्तर पर इसे अनिवार्य बनाने की मैं बात नहीं करूंगा. यह मेरे सामर्थ्य के बाहर है. मैं अपने स्तर पर इसे अनिवार्य बनाने की बात करूंगा. आंग्लभाषा की अनिवार्यता संदेह से परे है. वह तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. उससे मुख मोड़ना कूप मंडूक बनने का मार्ग है. परन्तु जो सुख अपनी माँ की गोद में है उसे अन्यत्र ढूंढना भी मूर्खता ही होती है. मैंने इसे अपने स्तर पर अनिवार्य कर दिया है. मैं अपने लेखों में मात्र हिंदी का प्रयोग करता हूँ. यदि कोई शब्द हिंदी में स्मरण नहीं आता या मुझे आता ही नहीं तो आसपास देख कर उसे उठा लूँगा. पर जब कभी सही हिंदी शब्द मिलेगा, वापस आ कर अपने लेख में संशोधन करना नहीं भूलूंगा.
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ठीक यही बात वार्तालाप पर भी लागू होती है. मुझे डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी वाली अत्यंत पांडित्य पूर्ण भाषा नहीं आती. जनसामान्य के कर्ण जो ऐसी भाषा को सुनने के अभ्यस्त नहीं हैं, उनके सम्मुख ऐसी भाषा का प्रयोग श्रेयस्कर भी नहीं है. परन्तु बिना आंग्लभाषा के सरल हिंदी बोलना अत्यंत सरल है.
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अक्सर आलोचक बात उठा देते हैं कि इस पूरे श्रम से क्या लाभ, अभी जब कार्य स्थल से सम्बंधित वार्ता करोगे तो खिचड़ी बनानी ही पड़ेगी. नहीं बनानी पड़ेगी, खिचड़ी बनाने से अच्छा है कि आंग्लभाषा में ही बात कर ली जाये. एक बात और, आरम्भ में साथी व्यवधान उपस्थित करते हैं, व्यंग भी करते हैं. पर न भूलिए, उनका तंत्र भी हिंदी का ही अभ्यस्त है, उनके मस्तिष्क भी सुनते सुनते जाग्रत हो ही जाते हैं. फिर सब हिंदी का ही प्रयोग करते हैं. परिमार्जित भाषा का, मिश्रण का नहीं.
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एक निवेदन हिंदी के विद्वानों से........
      रेल को जब तक लौहपथगामिनी कहेंगे, जनसामान्य उसे रेल ही कहेगा. हिंदी तो संस्कृत की बेटी है. संस्कृत के समस्त नियम यहाँ भी लागू होते हैं. संस्कृत में यदि किसी भी घटना, किसी भी परिस्थिति, किसी भी वस्तु के लिए शब्द गढ़ने की क्षमता है तो फिर उस क्षमता का हिंदी के लिए उपयोग क्यों नहीं किया जाये. जो शब्द रचे जाएँ वे कर्णप्रिय एवं यथासंभव लघु भी होने चाहिए. इस प्रकार से हम कतिपय शब्दों के जो कि आधुनिक विज्ञान की देन हैं, उनके लिए आंग्लभाषा पर निर्भरता से मुक्त हो जायेंगे.

2 comments:

  1. आज दिनांक 30 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में आपकी यह पोस्‍ट संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में निज भाषा शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।

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  2. प्रिय सोमेन्‍द्र अपनी ई मेल avinashvachaspati@gmail.com पर भेज दो तो आपको जनसत्‍ता में प्रकाशित लेख का स्‍कैनबिम्‍ब भिजवा सकूंगा।

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