Wednesday 24 February 2010

हिंदी के सम्मुख एक और चुनौती

मातृभाषा के ऊपर एक और लेख को लेकर प्रस्तुत हूँ. पिछले लेख पर कुछ टिप्पणियां आयीं. उन्हें ध्यान में रखते हुए लेख में कुछ संशोधन किये हैं. हिंदी में रोजगार नहीं मिलता, इसी कारण से इसकी पूंछ कम हो रही है. एक दम सही बात है. मैंने अपना बचपन नंदन, अमर चित्रकथा, चम्पक से आरम्भ किया था. आज के कुछ बच्चे भी  इन्हें पढ़ते हैं पर आंग्लभाषा में. कारण पूर्णतः स्पष्ट है, माता पिता यही सोचते हैं कि हिंदी में पंडित बन कर के क्या मिलेगा. बड़े हो कर सारी डाक्टरी, इंजीनियरी, वकालत तो आंग्लभाषा में करनी है. आज की आंग्लभाषामय परिस्थिति में ऐसी सोच होना स्वाभाविक है. जो स्वाभाविक है वह हमेशा सही हो ऐसा नहीं होता. अनेकानेक शोध यह प्रमाणित कर चुके हैं कि मातृभाषा में जो सीखते हैं वो अधिक हृदयगम्य होता है. शिक्षा का आरम्भ मातृभाषा में ही होना चाहिए. आंग्लभाषा अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, इसे यूँ ही नहीं छोड़ सकते पर अपनी भाषा का स्थान इससे कहीं ऊंचा और हमेशा इससे पहले है.
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डेनमार्क की अपनी प्रथम यात्रा में जब मैं अपने कार्यस्थल पर पंहुचा तो बातों बातों में मैंने अपने डेनिश सहकर्मी को बताया की कल Odder का पता ढूढने में बड़ी मुश्किल हुई. टैक्सी वाला समझ ही नहीं पा रहा था कि हम किस शहर की बात कर रहे हैं. थक हार कर लिख कर ही बताना पड़ा. वो हँस पड़ा और उसने बताया कि इसे ओदर नहीं, ओडर भी नहीं, ऑडर भी नहीं, औडर भी नहीं बल्कि आउदर कहते हैं. साथ ही उसने बताया कि डेनिश में एक सोफ्ट डी होता है एक हार्ड डी. अब बारी हमारे हँसने की थी. द, ढ, ध, ड हमारे यहाँ ४ होते हैं. और अच्छी बात ये है कि जो लिखा है वैसा ही पढ़ा जायेगा. उसने काफी देर प्रयास किया पर ढ और ध उनके लिए इतने आसान थोड़े न हैं. कुछ समय रहने के बाद हमारा विश्वास और भी दृढ हो गया कि देवनागरी का कोई विकल्प नहीं है.
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पिछले दिनों इस्कॉन के एक मंदिर में जाना हुआ. इस्कॉन माने  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्सियसनैस. स्वामी श्रील प्रभुपाद ने बहुत बड़ा काम किया है. पूरी मानवता को उद्धार के लिए हमारे कृष्ण के पास लाने का. अब विदेशी भी भारतीय ग्रंथो को पढने लग गए हैं. भगवद चर्चा चली तो बात निकली कि ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए. ब्रह्म कौन हैं, इसमें द्वैत और अद्वैत में मतभेद है. ब्रह्म दोनों में हैं. अद्वैत मत कहता है कि सब ब्रह्म ही है, यदि कुछ और दीखता है तो वह माया के कारण है. द्वैत मत के अनुसार ब्रह्म है और प्रकृति है. जो ब्रह्म के अतिरिक्त है वो प्रकृति है. एक भक्त ने बात उठाई कि मात्र ब्रह्म की पूजा हो सकती है, अब यदि मैं कृष्ण, शिव किसी को भी पूजूं पूजा तो ब्रह्म की ही होगी. दूसरे ने निराकरण किया, नहीं कृष्ण और शिव अलग अलग हैं. यहाँ तक कि कृष्ण के अलग अलग अवतार भी अलग अलग हैं. इनमे से जिसे पूजोगे उसी को प्राप्त होगे. मेरे मन में अलग प्रश्न उठ रहा था. शिव शिव कहने से कृष्ण को प्राप्त नहीं होंगे? कृष्णा कृष्णा कहने से कृष्ण को प्राप्त होना तर्कसंगत है क्या? कृष्णा तो द्रौपदी को कहते हैं न. मुझे पता है कि मेरा संदेह निरर्थक है. भावना से की गयी भक्ति वहीँ पहुचाती है जिसकी भावना की गयी हो. मुंह से क्या कह रहे हैं इससे अधिक अंतर नहीं पड़ता. मैं भक्ति की बात कर रहा हूँ. भूत प्रेत की आराधना करने वाले गलत मंत्र पढेंगे तो पिटाई होनी निश्चित है.

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समस्या यह है कि कृष्ण का कृष्णा हो गया. क्रिष्ण, कृष्न, या क्रिश्न, कृष्ना भी हो सकता है, हो ही जायेगा. हमारे देश के एक महा योगगुरु हैं. मैंने उन्हें अक्सर प्रज्ञा को प्रग्या न कह कर प्रज्यां कहते सुना है. ये यज्ञ को यग्य नकहकर यज्य कहते हैं. अब क्या सही है ये तो व्याकरण के आचार्य ही बताएँगे. हम तो बचपन से जो पढ़ते आ रहे हैं. जो कबीर ने लिखा कि कहे कबीर गुरु ग्यान ते, यह ज्यान का अपभ्रंश तो नहीं हो सकता. मुद्दे की बात यहाँ यह है कि रोमन लिपि में हिंदी लिखने से हिंदी के कुछ शब्द अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं. आने वाले कुछ समय में श तो बचेगा क्योंकि वो एग्जामिनेशन में है पर ष गायब हो जायेगा, ऊपर दिए गए ड, द ही बचेंगे. क्ष, त्र के गायब होने कि सम्भावना हो सकती है. और साथ ही विभिन्न प्रकार के र जैसे कि दर्प, पृथ्वी, त्रुटी में अंतर करना असंभव हो जायेगा.
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कभी अगर इन्टरनेट पर कोई संस्कृत का प्रमाणिक ग्रन्थ ढूंढना हो तो अधिकतर परिणाम आंग्लभाषा में ही आते हैं. ग्रन्थ भी रोमन में लिखे हुए होते हैं. च बनाने के लिए C के ऊपर एक आड़ा डंडा और भी नाना प्रकार की नुक्ताचीनी करके देवनागरी का विकल्प बनाने का प्रयत्न किया जाता है. इन सब के पीछे तर्क यह है कि अगर ये न करें तो अहिन्दीभाषी इन्हें कैसे पढेंगे. पर समस्या यह है कि एक तो मूलपाठ नष्ट हो जाता है और दूसरे इन्हें हिंदी भाषी भी पढ़ते हैं और अगर किसी शब्द को उन्होंने पहली बार देखा है तो वो त्रुटि पूर्ण रूप में उनके मस्तिष्क में अंकित हो जाता है. ऋषिवर पाणिनि ने बड़े प्रयत्न के बाद ये महान वर्णमाला बनायीं थी. इसे ऐसे ही नष्ट हो जाने देंगे क्या.
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अवस्था इतनी ख़राब है कि संस्कृत शब्द के उच्चारण पर भी भ्रम की स्थिति है.  samskritam कहने वालों की कमी नहीं है और अगर कुछ कहो तो हार्वर्ड और जाने कहाँ कहाँ से परिभाषा निकाल निकाल केसामने रख देंगे.
ऐसा लगता है कि देवनागरी के भक्तों को आक्रामक होना होगा. विदेशी भाषाओँ के ग्रंथों का अनुवाद नहीं लिप्यान्तरण करना होगा. देवनागरी में. जिससे कि विदेशियों को पता चले कि क्या है देवनागरी, वे इसमें व्यवहार करना आरम्भ करें. हमारे यहाँ के काले अंग्रेज भी तभी फिर से देवनागरी में लिखना आरम्भ करेंगे जब उन्हें बाहर से प्रेरणा आएगी. स्वामी श्रील प्रभुपाद यही विचार लेकर बाहर गए थे.
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चलते चलते.


मेरे साथ आनंदन मेरे दल के प्रमुख हुआ करते थे. हिंदी सीख रहे थे. उन्हें बड़ी समस्या थी कि कैंटीन में चाय तक नहीं मांग पाते. मेरे साथ हिंदी चलचित्र देखने जाते, मैं अनुवादक की भूमिका निभाता था. एक दिन बड़े प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले. 'बाई, चाय के बारे में क्या विचार है'. साथियों के ठहाकों के बीच मैंने हँसते हुए कहा बाई नहीं भाई कहो भाई. उन्होंने फिर प्रयास किया पर बात बनी नहीं. मैंने रामबाण समझ कर कहा बोलो, 'मेरा भारत महान'. उन्होंने कहा, 'मेरा बारत महान'. मैंने उन्हें उनके कंप्यूटर में रिकॉर्ड करके दे दिया और कहा, प्रयास करते रखो, तब तक मुझे बाई ही बने रहना पड़ेगा. सौभाग्य से  आनंदन को भ कहना आ गया और मुझे उनके मुख से भाई और मेरा भारत महान सुनने का अवसर मिला.

2 comments:

  1. सोमेंद्र जी,
    आप बड़े हैं या छोटे, पता नहीं, पर आपको नमन करने की इच्छा है.
    बहुत अच्छा, बहुत बढ़िया कहकर मैं, इस लेख की गरिमा कम नहीं करना चाहता.
    मैंने आपको ब्लॉक का अनुसरण भी किया है, आपका लेख मुझे मिलता रहेगा. आप हिंदी से जुड़े ज्यादा से ज्यादा संस्मरण और लेख लिखे. मैं पढूंगा आपका ब्लॉग.

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  2. सत्यजीत जी, पहले तो इतना विलम्ब से उत्तर लिखने के लिए क्षमा चाहता हूँ. आपके स्नेह ने मेरे नेत्रों में अश्रु ला दिए. ये निस्संदेह हमारी संस्कृति से मिले हुए संस्कार हैं जो मेरी लेखनी के माध्यम से इस ब्लॉग पटल पर उतर रहे हैं. मातृभाषा की ध्वजा हमने छुटपन से उठा रखी है और हृदय में इच्छा है कि अपने जीवन काल में हिंदी को एक सशक्त विश्वभाषा के विकल्प में परिवर्तित होते हुए देख लें. आप अनुसरण करते रहें. आशा है कि शीघ्र ही कोई मार्ग दिखाई देगा जिससे हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो पाएंगे.

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