Monday 22 February 2010

हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग

ब्लोगवाणी के पन्ने पलटते पलटते एक लेख दिखाई दिया. समयाभाव के कारण केवल शीर्षक ही पढ़ पाया. शीर्षक ही अपने आप में इतना आकर्षक था कि मन में उथल पुथल कर गया. हिंदी का प्रयोग करते समय अंग्रेजी का प्रयोग करना चाहिए कि नहीं. वैसे आजकल सामान्य बोलचाल में अंग्रेजी का प्रयोग बहुत ही आम हो चुका है. इसे हिंगलिश कहते हैं. मजे कि बात ये है कि इस प्रकार के शब्द अन्य देशों में भी प्रचलित हैं. डेनमार्क में डेंगलिश यानि कि डेनिश + इंग्लिश बोलते हैं. शायद ऐसा ही अन्य जगह पर भी होगा. यहाँ तक कि चीन में तो पढ़े लिखे नौजवानों में एक अलग फैशन है. वे दो नाम रखते हैं. एक चीनी और एक उससे कुछ कुछ मिलता जुलता अंग्रेजी नाम.
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हिंदी में हिंदी से इतर भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग नया नहीं है. सदल मिश्र और भारतेंदु के समय से ही ये बहस का और विवाद का मुद्दा रहा है कि कैसी हिंदी में लिखा जाये. उर्दू मिश्रित, जो एक तरह से उर्दू का देवनागरी रिप्लेसमेंट है, बृज या अवधी मिश्रित हिंदी, खडी बोली या संस्कृतनिष्ठ हिंदी जो हिंदी को हिंदी की माता यानि कि संस्कृत से जोडती है.
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हिंदी की शुरुवात वर्तमान हिंदी क्षेत्र के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली विविध क्षेत्रीय भाषाओँ में रचे गए ग्रंथों से हुई थी. वे ग्रन्थ अगर आज हिंदी का ज्ञान बघारने वाले किसी स्नातक को भी पकड़ा दिए जाएँ तो वो शायद उनका आंशिक मतलब ही समझ पायेगा. हिंदी ने क्षेत्रीय भाषाओँ से लेकर फारसी के शब्दों तक को अपने में समाहित किया है. गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों के शब्दों ने भी इसमें पैठ बनायीं है. इडली, डोसा, साम्भर, मिष्टी, खोता, खूब भालो, ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो जाने कब हम हिंदी भाषियों के अंतर में जगह बनाकर बैठ गए.
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अब एक लाख टके का सवाल... क्या इन नए शब्दों के आने से हिंदी भ्रष्ट हो गयी. या फिर ये और भी वैभवशाली हो गयी है, और भी धनी हो गयी है. निस्संदेह और भी अधिक धनी हुई है. ये हिंदी में घुसी उर्दू ही है जिसने हमें कम से कम इस लायक बनाया है कि हम किसी भी अरब से बिना झिझक कह सकें, आदाब, या खुदा हाफिज़. मुझे एक जोर्डन की महिला मिली थी और मिलते ही जब मैंने उसकी गुड मार्निंग का जवाब आदाब से दिया तो वो कृत कृत्य हो गयी. उसके चेहरे पे जो ख़ुशी थी वो देखी जा सकती थी. अब भले इसके आगे मुझे उसकी जबान का एक शब्द न आता हो, हमने वो पल तो जी भर के जी लिया. मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के अतिरिक्त भाषा का और क्या उपयोग है भला?
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अंग्रेजी और हिंदी तो वैसे भी एक ही भाषा परिवार से ताल्लुक रखती हैं. अंग्रेजी में संस्कृत से गए बड़े सारे शब्द हैं. अकेले शैक्सपियर ने लैटिन और अन्य भाषाओँ से निकाल निकाल के सोलह सौ से अधिक नए शब्द अंग्रेजी में डाल दिए. आज वे शब्द बड़े गर्व से  कहते हैं की उनका रूट यानि कि जड़ फलां फलां भाषा से आया है. तकरीबन हर भाषा की विकास यात्रा ऐसी ही होती है. संस्कृत शायद एक मात्र अपवाद है.
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हजारों वर्षों की गुलामी ने हमें कुछ अधिक ही रक्षात्मक बना दिया है. हमें बहुत सी कायदे की बातों को स्वीकार करने में भी गुलामी का बोध होता है. यहाँ इस बात पर जोर नहीं दिया जा रहा है कि हिंगलिश बोलना चाहिए.  अपितु मात्र उन विदेशी शब्दों को हिंदी में स्थान देना चाहिए जिनके बिना काम न चले, जिन विचारों को व्यक्त करने वाले शब्द हिंदी में हों ही न. वैसे ऐसे शब्दों की सूची बहुत अधिक नहीं होगी. ज्यादातर ऐसे शब्द पहले ही हिंदी में स्थान पा चुके हैं.  यहाँ यह कहा जा रहा है कि हैदेराबादी हिंदी जैसी हिंदी से मनोरंजन होता है यदि किसी को उसमे लिखना है तो लिखता रहे. साहित्यिक हिंदी से गरिमा का बोध होता है. ऐसा लिखें कि हिंदी की गरिमा भी बढे और वह जन साधारण के पास भी आ पाए.
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साहित्यिक हिंदी के आलोचक कहते हैं कि यह आम जनता की भाषा नहीं है और इसका वही हाल होगा जो इसकी माता संस्कृत का हुआ है. उन्हें यह सोचना चाहिए कि संस्कृत तो आज भी अपने मूल रूप में जिन्दा है. इसकी समकालीन अन्य भाषाएँ पाली और प्राकृत के बारे में कितने लोग जानते हैं? ठीक उसी तरह अगर हिंदी के बोलने वाले कम हुए तो इसके विभिन्न अपभ्रंश पूर्णतः गायब हो जायेंगे.
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मात्र हिंदी के अस्तित्व पर संकट नहीं है, सभी क्षेत्रीय भाषाएँ अपनी अपनी गरिमा के लिए संघर्ष कर रही हैं. क्यों न यह लडाई अलग अलग एवं एक दूसरे के साथ लड़ने के बजाय एक साथ मिल कर लड़ी जाये. क्यों न भारत वर्ष की सभी भाषाएँ संकोच छोड़ कर एक दूसरे के शब्दों को बेहिचक अपने में स्थान दें. हर भाषा के लेख अन्य लिपियों में भी लिखे जाएँ. वैसे भी हर भाषा में ८० प्रतिशत तक संस्कृत से आये हुए शब्द हैं. इस हिसाब से सभी भारतीय भाषाएँ मूलतः एक रूप हैं. हर एक भाषा को स्वयं को विस्तृत करने की आवश्यकता है. यह पराजय नहीं अपितु विजय है, संयोग को पराजय का नाम देना कहीं से भी बुद्धिमानी नहीं है.
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विद्वत जनों से अपेक्षा है कि वे इस विषय में नायकों की भूमिका निभाएंगे. यदि व्याकरण के नियमों में यत्र तत्र किंचित परिवर्तनों की आवश्यकता है तो वे आगे आकर अपनी भूमिका का निर्वहन करें. महान राष्ट्र बनने के लिए इस राष्ट्र को एक योगी बनने की आवश्यकता है. और योग का मतलब होता है सृष्टि से और ईश्वर अर्थात सत्य से एक रूपता प्राप्त करना. है न. आओ हम अपने राष्ट्र रुपी शरीर में आने वाले विविध विचारों को सर्वत्र संचारित करने वाली प्राण स्वरूपिनी भाषाओँ को एक दूसरे में लय कर लें.
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जय भारत
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1 comment:

  1. सोमेद्र जी, चलती आग्रहवादियों की भी है और साम्राज्यवादियों की भी. अंग्रेजी थोपी जा रही है और स्वीकार कर रहे हैं. लेकिन यह सामर्थ्य की बात है. हम तो उतने सामर्थ्यशाली नहीं हैं.

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